शनिवार, 6 सितंबर 2014

"जल-जीवन बचाने के लिए बचाना होगा हिमालय" - हिमालय दिवस 9 सितम्बर

हम हर वर्ष 9 सितम्बर को हिमालय दिवस के रूप में मनाते हैं, हिमालय मतलब भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, चाइना आदि देशों का जीवनदाता, अगर हिमालय न होता तो इस छेत्र का भी कोई अस्तित्व न होता और जिस दिन हिमालय नहीं होगा उस दिन इन देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा और ये देश पानी के आभाव के कारण रेत के टीले में तब्दील हो जायेंगे | इसलिए हमें हिमालय को समझना होगा और समझना होगा हिमालय का हमारे जीवन में क्या महत्व है? हिमालय के ग्लेशियरों से ही नदियों का अस्तित्व है जो इन ग्लेशियरों से निकलकर प्राकृतिक संतुलन बनाने का काम करती हैं, इनसे ही पीने, कृषि और पेड़-पौधों को जल की आपूर्ति होती है और वही पेड़-पौधे हमें आक्सीजन देते हैं अगर ये क्रम टूट गया तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा| आज हिमालय पर लगातार ख़तरा मंडरा रहा है, मनुष्य विकास की अंधी दौड़ में हिमालय की संवेदनशीलता की अनदेखी कर रहा है|
      पहाड़ों पर अत्यधिक मानव दखल के कारण आज हिमालय का अस्तित्व मिटने के कगार पर है जिसका वीभत्स नजारा वर्ष 2013 के जून माह की 16-17 तारीख को केदारनाथ, लामबगड़, धारचूला, उत्तरकाशी, गोविन्दघाट आदि क्षेत्रों में देखनो को मिला और पिछले कुछ सालों से चीन, नेपाल, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान आदि देशों में हर साल हिमालय में हो रहे परिवर्तन के कारण भयानक आपदा आ रही हैं| हिमालय को सुरक्षित रखने के लिए सभी देशों को कारगर कदम उठाने पड़ेंगे, सीमांत जनपदों में विस्फोटकों का स्तमाल पूर्ण रूप से रोकना होगा, धार्मिक एवं पर्यटन यात्रा सीमित एवं प्राकृतिक संतुलित करनी होगी, प्राकृतिक संतुलन वाला विकास ही हिमालय को बचाने में कारगर हो सकता है|
      इतना ही नहीं आम देशवाशियों को अपने पारिवारिक उत्सवों पर पर्यावरण एवं हिमालय को सुरक्षित रखने वाले कदम उठाने होंगे, देशवाशियों को शादी-विवाह, जन्मदिन, तीज-त्यौहार आदि में अपने परिवार के साथ अपने आस-पास के क्षेत्रों में कम से कम 5 और अधिकतम अपनी छमता अनुसार फलदार वृक्ष लगाकर उनकी देखभाल करने का संकल्प करना होगा, इससे एक ओर जहाँ प्राकृतिक पर्यावरणीय संतुलन बना रहेगा वहीँ दूसरी तरफ उनके ऐसा करने से भूखे मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों के लिए भोजन की प्राप्ति होगी, साथ ही देशवाशी अपने और अपने परिवार की इस प्रकृति के प्रति नैतिक जिम्मेदारी भी पूरी करेंगे| इतना ही नहीं एसा करने से देशवाशियों के अन्दर अच्छे संस्कार आयेंगे, और वो एक दुसरे से स्नेह करेंगे व एक दुसरे के प्रति जिम्मेदारी महसूस करेंगे| इस प्रकार शादी, जन्मदिन, तीज-त्यौहार मनानें से देशवाशियों के परिवारों की ख़ुशी कई गुना बढ़ेगी और उन्हें आत्मिक शान्ति का एहसास होगा | जब इसी प्रकार सभी देशवाशी अपने परिवार के सदस्यों के साथ हर वर्ष उत्सव मनायेंगे तो कुछ ही सालों में उनके आस-पास और उनके जीवन में एक बढ़ा बदलाव उन्हें अपनी आँखों से देखने को मिलेगा, हिमालय को बचाने के लिए इससे ज्यादा प्रभावशाली कदम दूसरा नहीं हो सकता है|
      सरकारों को पहाड़ी एवं मैदानी क्षेत्रों में कंक्रीट के जंगल सीमित करने होंगे आवासीय कालोनियों में पेड़-पौधे ज्यादा से ज्यादा हों इसके लिए कठिन नियम बनाने होंगे| प्रत्येक भवन स्वामी के लिए उसके भूखंड पर कम से कम 20% भूमि बागवानी, गार्डन और पेड़-पौधों के लिए छोड़ना अनिवार्य करना होगा| 
      देश की सरकारों को स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस, शिक्षक दिवस आदि दिनों में देशभर में फलदार पेड़ों का वृक्षारोपण, सफाई अभियान चलाकर इन दिवसों का सकारात्मक प्रयोग करना होगा, ताकि इन दिवसों पर वृहद् स्तर पर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कारगर कदम उठाये जा सकें |
      हिमालयी क्षेत्र में अगर केवल उत्तराखंड की बात करें तो पहाड़ों में गहरी जड़ों वाले पौधों को बढ़ावा देना होगा, फलदार एवं चौड़ी पत्ती के पौधों को बढ़ावा देना होगा, जिससे वो मिट्टी को भू-स्खलन होने से बचा के रख सकें| आज चीड़ का पेढ़ सम्पूर्ण उत्तराखंड के न केवल पर्यावरण के लिए घातक है, बल्कि हर साल भभकते जंगलों, मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, पेड़-पौधों आदि अन्य जातियों की हत्या का दोषी भी है, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मुख्यसचिव, वन-प्रमुख, वन-सचिव को बार-बार इससे हो रहे खतरे से लगातार अवगत करवाने के लिए सुझाव भेजे, मगर उनका जो जवाब था मुझे हास्यास्पद लगा उनका कहना है चीड़ से लिसा और इमारती लकड़ी मिलती है जिससे हर वर्ष 54 करोड़ का राजस्व लाभ होता है, जबकि यहाँ बता दूँ हर वर्ष इसी चीड़ की आग की आड़ में 16 करोड़ रूपये तो आग बुझाने के मद में खर्च किये जाते हैं और जो पेड़ केवल कागजों में लगाये जाते हैं, उनकी कभी पोल न खुल जाए इसलिए उनको भी इसी चीड़ के पत्तों की आग में दफ़न कर दिया जाता है| चीड़ का पेड़ भी अनोखा है एक तो चीड़ का फल पेड़ में ही पक जाता है, दूसरा उसके बीज हवा के बहाव के साथ ही दूर-दराज तक अपने-आप पहुँच जाते हैं, चूँकि इसको पानी की कम आवश्यकता पढ़ती है इसलिए ये हर जगह पनप जाता है, मगर जड़ें कमजोर होने के कारण ये कभी भी धराशाई हो जाता है जिस कारण भू-स्खलन अत्यधिक बढ़ जाता है| चीड़ जिस तेजी से कृषि भूमि, बांज के जंगलों, देवदार के जंगलों में पनप रहा है, उससे पहाड़ों की कृषि, बागवानी, बांज-बुरांश, देवदार, फलदार पेड़ एवं चारा पत्ती आदि के लुप्त होने का खतरा अत्यधिक बढ़ गया है, त्वरित रूप से चीड़ के पेड़ों को रोक कर पहाड़ों में कृषि, बागवानी, बांज-बुरांश, देवदार, फलदार पेड़ एवं चारा पत्ती को युद्ध स्तर पर बढ़ावा नहीं दिया गया तो परिणाम भयावह होंगे |
       
स्नेहपूर्ण जनहित अभिलाशी,
भार्गव चन्दोला (हिमालय बचाओ आन्दोलनकारी)
सामाजिक, आर.टी.आई. एवं राजनीतिक कार्यकर्त्ता,
1, राजराजेश्वरी विहार, नथनपुर, देहरादून, संपर्क न. 9411155139 
email: bhargavachandola@gmail.com Blog: bhargavachandola.blogspot.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें