रविवार, 17 अगस्त 2014

घर के रहे न घाट के


लगता है सरकार, लोकसेवक, ठेकेदार, पूंजीपति, नदी नालों के किनारे अवैध बसने और अवैध बसाने वाले तभी चेतेंगे जब पहाड़ की मिटटी-पत्थर पूर्ण रूप से बहकर पहाड़ तहैश-नहैश हो जायेंगे... डोईवाला नदी किनारे अवैध बसी बस्ती जब मेरी आँखों के सामने ताश के पत्तों की तरह पानी में मिलकर बहती गई तो सच कहूँ तो मुझे हम इन्शानों के कच्चे लालच पर अफ़सोस हुवा जिसकी कीमत उनको अपना सर्वस्व गँवा कर चुकानी पढ़ी... इसी को कहते हैं घर के रहे न घाट के... सोचा था केदारनाथ आपदा के बाद सरकार और आम इन्शान दोनो की अक्कल ठिकाने आ जायेगी मगर फिर वही कुत्ते की पूंछ वाली बात याद आ जाती है जिसे छः माह तक पत्थर से दबाकर भी रखो वो टेढ़ी ही रहेगी वही हाल सरकार और हम आम इंसानों के हैं, फिर किसी के मरने-जीने से कैसा दुःख... ?

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